जातिगत जनगणना: जाति-आधारित जनगणना, या उनकी जाति संबद्धता के आधार पर जनसंख्या की गणना, कई वर्षों से भारत में बहस और चर्चा का विषय रही है। बिहार सरकार द्वारा हाल ही में जारी किये गए जाति सर्वेक्षण के आँकड़ों ने एक बार फिर से जाति जनगणना के मुद्दे को चर्चा में ला दिया है। हालाँकि, भारत की जनगणना द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर आँकड़े प्रकाशित किये जाते रहे हैं, लेकिन OBC एवं अन्य समूहों की आबादी का कोई अनुमान उपलब्ध नहीं कराया जाता है।
यह सवाल कि क्या जाति-आधारित जनगणना भारत के लिए फायदेमंद है, एक जटिल सवाल है, जिसके फायदे और नुकसान दोनों पर विचार करना होगा। इस लेख में, हम इसी पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
भारत में जनगणना और जाति जनगणना का इतिहास क्या है?
भारत में जनगणना की शुरुआत वर्ष 1881 के औपनिवेशिक अभ्यास के साथ हुई थी , हालांकि पहली जनगणना 1872 में लार्ड रिपन के समय हुई थी. पर नियमित तौर पर 1881 में लार्ड मेयो के समय शुरू हुई थी. जनगणना का उपयोग सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय आबादी का आकलन करने, संसाधनों तक पहुँच बनाने, सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा तय करने और परिसीमन अभ्यासों के लिये किया जाता है।
जनगणना भारतीय जनसंख्या का एक सामान्य चित्र प्रदान करती है, जबकि सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census- SECC) का उपयोग राज्य सहायता के लाभार्थियों की पहचान करने के लिये किया जाता है। SECC पहली बार वर्ष 1931 में आयोजित किया गया था, जिसका उद्देश्य अभाव के संकेतकों की पहचान करने के लिये ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में भारतीय परिवारों की आर्थिक स्थिति के बारे में सूचना एकत्र करना था।
यह विभिन्न जाति समूहों की आर्थिक स्थितियों का मूल्यांकन करने के लिये विशिष्ट जाति नामों पर भी डेटा एकत्र करता है।
जनगणना अधिनियम 1948 के तहत जनगणना के आँकड़े गोपनीय होते हैं, जबकि SECC में संग्रहित व्यक्तिगत सूचना सरकारी विभागों द्वारा परिवारों को लाभ देने या लाभ से वंचित करने हेतु उपयोग के लिये उपलब्ध होती है। वर्ष 1951 के बाद जातिगत आँकड़ों का संग्रह बंद करने का निर्णय लिया गया ताकि इस विभाजनकारी दृष्टिकोण से बचा जा सके और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया जा सके। हालाँकि, बदलती सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता और सटीक सूचना की आवश्यकता को देखते हुए जातिगत जनगणना का नए सिरे से आह्वान किया जा रहा है।
जातिगत जनगणना देश के सामाजिक विकास के लिए आवश्यक है या हानिकारक?
इस प्रश्न का सटीक उत्तर दे पाना अत्यंत कठिन है कि जाति आधारित जनगणना देश के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए आवश्यक है या नहीं क्योंकि इसके पक्ष में और विपक्ष दोनों में तर्क दिए जाते हैं और दोनों ही तर्क अपने अपने जगह सही हैं. आइये इसके सकारात्मक और नकारात्मक(Negative) पहलुओं पर विचार करते हैं.
Positive Facts:
- समाजिक न्याय: जातिगत जनगणना से सामाजिक न्याय की दिशा में गहराई से समझ पाई जा सकती है। इससे जातिगत और आर्थिक विभाजन को समझने में मदद मिल सकती है और सरकार समाज को योजनाओं और योजनाओं के लिए सहायता प्रदान कर सकती है।
- संख्यागत जानकारी: जातिगत जनगणना से जनसंख्या की सटीक जानकारी मिलती है, जो योजनाओं की तय करने में मदद करती है।
- सामाजिक अध्ययन: जातिगत जनगणना से सामाजिक अध्ययन और रिसर्च को नए डेटा स्रोत मिलते हैं, जिससे समाज की समझ बढ़ सकती है।
- नौकरी और योजनाएं: जातिगत जनगणना के आधार पर नौकरी और सरकारी योजनाओं का वितरण किया जा सकता है, ताकि वो जिन वर्गों और समुदायों को सबसे अधिक आवश्यकता है, उन्हें मिल सके।
- आरक्षण निर्धारण में सहयोग: OBCs और अन्य समूहों के लिये आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई नीतियों का उद्देश्य सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है। हालाँकि, जनसंख्या पर उचित आँकड़े के बिना इन नीतियों के प्रभाव और प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। जाति जनगणना से इनके लिए आरक्षण निर्धारित करने में मदद मिल सकती है.
- नीति निर्माण में मदद: जातिगत जनगणना ऐसी नीतियों के कार्यान्वयन और परिणामों की निगरानी में मदद कर सकती है, जिससे नीति निर्माताओं को उनकी निरंतरता और संशोधन के संबंध में सूचना-संपन्न निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सकता है।
- विविधता समझने में आसानी: जातिगत जनगणना भारतीय समाज की विविधता की एक व्यापक तस्वीर प्रदान कर सकती है, जो सामाजिक ताने-बाने और विभिन्न जाति समूहों के बीच परस्पर क्रिया पर प्रकाश डाल सकती है। यह आँकड़ा सामाजिक गतिशीलता की बेहतर समझ पाने में योगदान कर सकता है।
- संवैधानिक प्रावधान: भारत का संविधान भी जातिगत जनगणना आयोजित कराने का पक्षधर है। अनुच्छेद 340 सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की दशा की जाँच करने और इस संबंध में सरकारों द्वारा उठाए जा सकने वाले कदमों के बारे में सिफ़ारिशें करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
Negative Facts:
- जातिगत विभाजन: जातिगत जनगणना समाज में जातिगत विभाजन को बढ़ावा देती है और लोगों के बीच भेदभाव को बढ़ा सकती है। यह एकता और सामाजिक समरसता के खिलाफ हो सकता है।
- यूपी और संचित जानकारी: जातिगत जनगणना की प्रक्रिया में यूपी और संचित जानकारी की खतरा हो सकती है, जिससे व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन हो सकता है।
- संख्यागत लाभ: जातिगत जनगणना की लागत बड़ी होती है और यह सरकार के बजट को फसाने की समस्या उत्पन्न कर सकती है।
- जाति-आधारित भेदभाव:जाति जनगणना के विरोधियों का तर्क है कि जाति-आधारित भेदभाव अवैध है और जातिगत जनगणना जाति व्यवस्था को बढ़ावा ही देगी। उनका मानना है कि लोगों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकृत करने के बजाय सभी नागरिकों के लिये व्यक्तिगत अधिकारों और समान अवसरों पर ध्यान केंद्रित करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- जातियों को परिभाषित करना कठिन: जातियों को परिभाषित करना एक जटिल मुद्दा है, क्योंकि भारत में हजारों जातियाँ और उपजातियाँ पाई जाती हैं। जाति जनगणना के लिये जातियों की स्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता होगी, जो आसान कार्य नहीं है। आलोचकों का तर्क है कि इससे समाज में भ्रम, विवाद और विभाजन की वृद्धि की स्थिति बन सकती है।
जातिगत जनगणना का प्रयोजन समाज, सरकार, और शोधकर्ताओं के लिए हो सकता है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि इसका उपयोग तब किया जाए जब यह सामाजिक न्याय और विकास की दिशा में हो। साथ ही, इसकी प्रक्रिया को गोपनीय और न्यायसंगत बनाने के उपायों का भी विचार करना चाहिए। आँकड़े को चुनाव जीतने के लिये मतभेदों को गहरा करने और ध्रुवीकरण बढ़ाने का हथियार नहीं बनना चाहिये। इसे एक वृहत और विविध लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की अवधारणा के बिखराव और संकुचन का कारण नहीं बनना चाहिये।
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