महिला आरक्षण बिल का इतिहास: ज्ञान दुनिया पर आप सभी का एक बार फिर स्वागत है। आज हम यहाँ हाल ही में देश की नई संसद से पारित हुए ऐतिहासिक विधेयक नारी शक्ति वंदन अधिनियम या महिला आरक्षण बिल के ऐतिहासिक सफ़र पर चर्चा करने वालें है। आज हम जानेंगे कि महिला आरक्षण बिल जिसे 128वां संविधान सशोधन विधेयक भी कहते हैं, उसके संसद में पहली बार पेश किये जाने से लेकर 21 सितम्बर 2023 को संसद से पारित होने तक का सम्पूर्ण इतिहास क्या है? क्यों यह सन 2008 में राज्यसभा से पास होने के बाद भी संसद से पारित नहीं हो पाया था?
महिला आरक्षण की आवश्यकता
भारत में महिलाएँ देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं। यूँ तो यह आधी आबादी कभी शोषण तो कभी अत्याचार के मामलों को लेकर अक्सर चर्चा में रहती है, लेकिन पिछले कुछ समय से सबरीमाला मंदिर में प्रवेश और तीन तलाक पर कानून के मुद्दों को लेकर एक बार फिर महिलाओं की समानता का सवाल उठ खड़ा हुआ है। लेकिन जब भी हम महिलाओं की समानता की बात करते हैं तो यह भूल जाते हैं कि किसी भी वर्ग में समानता के लिये सबसे पहले अवसरों की समानता का होना बेहद ज़रूरी है।
भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल 11।8 फीसदी है। ऐसे में सवाल है कि देश की आधी आबादी राजनीति के क्षेत्र में कहाँ है और अभी उसे कितनी दूरी तय करनी है ताकि वह ‘आधी आबादी’ के कथन को पूरी तरह चरितार्थ कर सके। जब बांग्लादेश जैसा देश संसद में महिला आरक्षण दे सकता है तो भारत में दशकों बाद भी महिला आरक्षण विधेयक की दुर्गति क्यों है।
यह भी किसी से छिपा नहीं है कि देश में आधी आबादी राजनीति में अभी भी हाशिये पर है। यह स्थिति तब है, जबकि जितनी भी महिलाओं को राजनीति के निचले पायदान से ऊपरी पायदान तक जितना भी और जब भी मौका मिला, उन्होंने अपनी योग्यता और क्षमताओं का लोहा मनवाया है।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण दिलाने के लिये लाया गया ‘महिला आरक्षण विधेयक’ राज्यसभा से पारित होने के बाद लोकसभा में सालों से लंबित पड़ा है। राष्ट्रीय राजनीतिक दल भी बहुत कम संख्या में महिला उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये टिकट देते हैं।
राजनीतिक भागीदारी की अहम प्रक्रिया यानी मतदान में भी महिलाएँ अपने परिवार के पुरुषों की राय के मुताबिक मतदान करती रही हैं। पंचायत में 33 फीसदी महिला आरक्षण के बाद प्रत्यक्ष तौर पर तो महिलाओं की स्थिति में सुधार दिखाई देता है, लेकिन जहाँ तक निर्णय लेने का प्रश्न है उनके हाथ अभी भी बंधे हुए प्रतीत होते हैं।
महिला आरक्षण बिल के इतिहास पर चर्चा करने से पहले ये जान लेते हैं कि महिला आरक्षण बिल क्या है और इस विधेयक में क्या प्रावधान रखे गए है? साथ ही इस विधेयक के संसद से पास हो जाने के बाद कब तक इसके लागू होने की सम्भावना है?
महिला आरक्षण बिल के प्रावधान
- महिला आरक्षण विधेयक में महिलाओं के लिये लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में 33% सीटें आरक्षित करने का प्रस्ताव है। हालांकि इस विधेयक से राज्यसभा और विधान परिषदों को अलग रखा गया है।
- आरक्षित सीटों का आवंटन अगली जनगणना और उसके बाद प्रस्तावित परिसीमन के बाद किया जायेगा।
- इस संशोधन अधिनियम के लागू होने के 15 वर्ष बाद महिलाओं के लिये सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा, जिसे आवश्यकता पड़ने पर बाद में बढाया जा सकता है।
- लोकसभा और देश की हर विधानसभा में अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए रिजर्व सीटों का एक-तिहाई हिस्सा भी महिलाओं के लिए आरक्षित किया जाए।
महिला आरक्षण बिल का इतिहास: क्या है राजनैतिक सफ़र
महिला आरक्षण बिल की राजनीतिक कहानी शुरु होती है राजीव गांधी के कार्यकाल से। लेकिन उसके भी बहुत पहले साल 1971 में कुछ ऐसा हुआ था कि भारत सरकार को दबी जुबान में ही सही, पर लिखित में स्वीकारना पड़ा था कि देश में महिलाओं के पास समानता नहीं है।
साल 1971 में भारत सरकार के पास संयुक्त राष्ट्र से एक चिट्ठी आई थी। जिसमे पूछा गया था कि साल 1975 में आने वाले अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के पहले महिलाओं की स्थिति क्या है? तब शिक्षा और समाज कल्याण मंत्रालय ने इस पर अध्ययन करने के लिए एक कमिटी बनाई। जिसने अपनी रिपोर्ट पेश किया जिसका शीर्षक था- “Towards Equality“ – बराबरी की ओर। रिपोर्ट का शीर्षक ही बताता है कि तब देश में महिलाओं की स्थिति बराबर नहीं थी, लेकिन बराबरी की ओर थी।
हालांकि इस रिपोर्ट के बाद फिर केंद्र और राज्यों ने इस पर विचार करना शुरु किया कि पंचायत और निकाय चुनावों में महिलाओं को आरक्षण मिले। राजीव गांधी ने मई 1989 में ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था। विधेयक लोकसभा में पारित हो गया था, लेकिन सितंबर 1989 में राज्यसभा में पारित होने में विफल रहा।
इसके बाद 12 सितंबर 1996 को तत्कालीन देवेगौड़ा सरकार ने पहली बार संसद में महिलाओं के आरक्षण के लिए 81वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया। विधेयक को लोकसभा में मंजूरी नहीं मिलने के बाद इसे गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया। मुखर्जी समिति ने दिसंबर 1996 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। परन्तु लोकसभा भंग होने के साथ विधेयक समाप्त हो गया।
इसके बाद अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी इस दिशा में काम करने का प्रयास किया था। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 1998 में 12वीं लोकसभा में महिला आरक्षण विधेयक को पेश किया था। हालांकि, इस बार भी विधेयक को समर्थन नहीं मिला और यह फिर से निरस्त हो गया। बाद में इसे 1999, 2002 और 2003 में वाजपेयी सरकार के तहत फिर से पेश किया गया, लेकिन फिर भी कोई सफलता नहीं मिली।
2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण से जुड़ा 108वाँ संविधान संशोधन विधेयक राज्यसभा में पेश किया। इसके दो साल बाद 2010 में तमाम राजनीतिक अवरोधों को दरकिनार कर राज्यसभा में यह विधेयक पारित करा दिया गया। कॉन्ग्रेस को बीजेपी और वाम दलों के अलावा कुछ और अन्य दलों का साथ मिला। लेकिन लोकसभा में 262 सीटें होने के बावजूद मनमोहन सिंह सरकार विधेयक को पारित नहीं करा पाई
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